“बहकता बचपन: एक ग़ज़लकार इंजीनियर की संजीदा अपील”
भिलाई : मेरठ, बचपन को यदि ज़िंदगी का सबसे हसीन दौर कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पर जब यही बचपन बहकने लगे, तो पूरा समाज चिंता में पड़ जाता है। इसी विषय पर इंजीनियर साजिद अली ‘सतरंगी’ ने न सिर्फ़ एक चिंतनशील लेख लिखा है, बल्कि उसमें गहराई से आज के दौर की असलियत को सामने रखा है और एक संभावित समाधान की भी राह बताई है।
लेखक परिचय: तकनीक और तख़ल्लुस का अद्भुत संगम
साजिद अली ‘सतरंगी’ का जन्म 20 जनवरी 1990 को मेरठ में हुआ। उनके पिता श्री नूरमौहम्मद सैफी हैं। पेशे से वे एक कुशल आर्किटेक्ट हैं, जिन्होंने बैचलर ऑफ आर्किटेक्चर और इंटीरियर डिजाइन में डिप्लोमा प्राप्त किया है।
वे अफ़रोज़ एजुकेशनल ट्रस्ट के चेयरमैन और एस्पायर आर्किटेक्ट के संचालक हैं। लेकिन इन सबसे इतर, वे साहित्य के क्षेत्र में भी एक सशक्त और सशक्तिपूर्ण उपस्थिति रखते हैं।
700 से अधिक गीत, कविताएँ और ग़ज़लें लिख चुके सतरंगी की रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होती रही हैं।
उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं — सदी के मशहूर ग़ज़लकार, आधुनिक भारत के ग़ज़लकार, इंकलाब-ए-ग़ज़लगोई, बचपन, स्त्री, प्रकृति की छांव में, फख्र-ए-ग़ज़लगोई आदि।
साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें अकबर इलाहाबादी स्मृति सम्मान (UP सरकार), फिराक़ गोरखपुरी सम्मान (हिन्दुस्तानी अकादमी प्रयागराज), फख्र-ए-ग़ज़लगोई खिताब, ह्यूमन सॉलिडैरिटी अवॉर्ड, और विविधा सृजन संगम जैसे कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है।
बहकता बचपन: एक चिंताजनक तस्वीर

सतरंगी की कलम से निकली यह चिंता — कि “बचपन बहक रहा है”, केवल एक भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है। लेख में उन्होंने मोबाइल, इंटरनेट, बिगड़ते पारिवारिक संबंध, और शिक्षा के व्यवसायीकरण को बच्चों की मासूमियत छीनने वाले प्रमुख कारणों में गिना है।
आज का बच्चा तकनीकी रूप से तो तेज है, लेकिन भावनात्मक रूप से अकेला होता जा रहा है। स्मार्टफोन की स्क्रीन से चिपके बच्चे खेल के मैदान से दूर हो चुके हैं। माता-पिता संवाद की बजाय बच्चों को टॉप रैंक की दौड़ में झोंक रहे हैं। ऐसे माहौल में संस्कारों की जगह “ट्रेंड्स” और “इन्फ्लुएंसर्स” ने ले ली है।
भावनात्मक विघटन और शिक्षा की सीमाएं
लेख के अनुसार, आज की शिक्षा प्रणाली बच्चों को संवेदनशील इंसान बनाने की बजाय उन्हें प्रतिस्पर्धा की मशीन बना रही है। स्कूल में नैतिक शिक्षा महज़ एक औपचारिक विषय बन गई है, जिसका असर बच्चों के व्यवहार में नहीं दिखता। इसीलिए वे चिड़चिड़े, आक्रामक और कई बार आपराधिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
समाधान की राह: बचपन को बहकने नहीं, खिलने दें
साजिद अली ‘सतरंगी’ का स्पष्ट मत है कि यह समस्या समाधानहीन नहीं है।
इसके लिए वे कई सुझाव देते हैं:
घर में संवाद का वातावरण बने
बच्चों को सुनने और समझने की आदत विकसित हो
मोबाइल/इंटरनेट पर नियंत्रण रखते हुए बच्चों को प्रकृति और खेल से जोड़ा जाए
स्कूल में केवल परीक्षा नहीं, संवेदना और नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जाए
माता-पिता ‘गाइड’ नहीं, ‘साथी’ बनें
सरकार और सामाजिक संगठनों को मिलकर साइबर सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर काम करना चाहिए
एक शेर जो सब कह देता है…लेख के अंत में लेखक की यह पंक्ति पूरी भावनात्मक गहराई के साथ झकझोरती है:
“क्या हसीं थें वो मेरे बचपन के दिन,
लोरियाँ जब माँ सुनाया करती थीं…”
साजिद अली ‘सतरंगी’ का यह लेख न केवल एक लेखक की चिंता है, बल्कि एक जिम्मेदार नागरिक, शिक्षक, अभिभावक और संवेदनशील समाज की पुकार है।
अब यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि इस पुकार को सुना जाए, समझा जाए और उस पर अमल किया जाए।
क्योंकि जैसा उन्होंने लिखा —
“बचपन अगर दिशा में हो, तो देश दिशा में होता है…”
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✍🏻 लेखक: इंजीनियर साजिद अली ‘सतरंगी’