मुहब्बत  कुछ पुरानी, कुछ नए दौर की

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वक़्त बदला, एहसास नहीं  मुहब्बत की रूह वही है

भिलाई, मेरठ, मुहब्बत— एक ऐसा नाम जो इंसान की ज़िंदगी में कभी न कभी एक बार ज़रूर आता है,यह नाम जितना ख़ूबसूरत है उससे भी कहीं ज़्यादा बदरंग भी है। यह लफ़्ज़ जितना छोटा है, उतनी ही गहराई इसमें समाई हुई है। सदियों से इंसान के जज़्बात, उसकी तन्हाई, उसकी खुशी, उसका दर्द — सब कुछ किसी न किसी रूप में इसी मुहब्बत के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। वक़्त बदला, ज़माने बदले, तौर-तरीके बदले, मगर मुहब्बत का मफ़हूम अब भी वैसा ही है — बस उसकी शक्लें बदल गई हैं। आज का दौर सोशल मीडिया, मोबाइल स्क्रीन और रील्स का है, जबकि कल का दौर ख़त, इंतज़ार, अहसासात और निगाहों की ज़बान का था। चलिए, ज़रा रुक कर दोनों दौरों की मुहब्बत को एक नज़र देखते हैं — कुछ पुरानी, कुछ नई…मुहब्बत

1.वो दौर — जब मुहब्बत में सब्र था

एक वक़्त था जब मुहब्बत ‘इज़हार’ से ज़्यादा ‘एहसास’ का नाम थी। न मोबाइल थे, न सोशल मीडिया,न वीडियो काॅल। अपने महबूब से मिलने के लिए बहाने ढूंढने पड़ते थे। किसी के चेहरे की एक झलक देखने के लिए गलियों में घंटों इंतज़ार करना पड़ता था। उस वक़्त की मुहब्बत चुप थी, मगर सच्ची थी।

वो दौर वहीं था जब दिल की बात, दिल ओर अहसासात, ख़त के ज़रिए कहे जाते थें। एक ख़त में स्याही से ज़्यादा जज़्बात बहते थे। हर लफ़्ज़ फूलों की तरह महकता था, हर लफ़्ज़ धड़कनों की रफ़्तार बढ़ा देता था। कोई इमोजी नहीं थी — मगर एक बात जो बहुत ही प्यार के साथ कही जाती “तुम अपना ख़याल रखना” का मतलब पूरा जहाँ होता था।
मुहब्बत उस वक़्त में मुश्किल ज़रूर थी, मगर मुकम्मल आज़ से कही ज़्यादा थी। मुलाक़ातें कम होती थीं, मगर उनका असर दिल पर ज़्यादा ओर गहरा होता था। शायद इसलिए कि तब मुहब्बत में “वक़्त देना” एक आदत नहीं, एक इबादत हुआ करती थी।

2.आज़ का दौर — अब मुहब्बत स्क्रीन पर मुस्कुराती है

आज़ वक़्त बहुत बदल चुका है। अब मुहब्बत मोबाइल स्क्रीन पर टाइप होती है। प्यार का इज़हार करने, जैसे “आई लव यू” कहने के लिए कलम नहीं, बल्कि मोबाइल फोन का कीबोर्ड चाहिए होता है। अब अपनी महबूबा के दीदार के लिए किसी गली,या काॅलिज के बाहर खड़ा नहीं होना पड़ता , क्योंकि वीडियो कॉल पर सब मुमकिन है।
अब मुहब्बत में ‘इंतज़ार’ कम और ‘नोटिफिकेशन’ ज़्यादा हैं। पहले मुहब्बत आँखों में उतरती थी, अब डीएम में आती है। पहले एक झलक के लिए हफ्तों इंतज़ार होता था, अब हर पल “लास्ट सीन” पर नज़र रहती है।
फिर भी, मैं इस दौर की मुहब्बत को ग़लत नहीं कहता। क्योंकि हर ज़माने की अपनी रूह होती है। आज की मुहब्बत खुली है, बेबाक है, मगर थोड़ी जल्दबाज़ भी है। अब लोग “ब्लॉक” और “अनब्लॉक” के बीच इश्क़ निभाते हैं। कुछ लम्हों में प्यार होता है, और कुछ लम्हों के बाद टूट भी जाता है।
मगर, जो सच्चे हैं और दिल से मुहब्बत करते हैं— वो आज भी उसी सच्चाई से मुहब्बत करते हैं। फर्क बस इतना है कि अब वो हाथों में कलम नहीं, बल्कि मोबाइल पकड़े हुए हैं।

3.पुरानी मुहब्बत की ख़ुशबू

मैंने ये माना है पुराने दौर की मुहब्बत में जो बात थी, वो शायद अब भी लोगों को याद है। वो इंतज़ार, वो चोरी-चोरी बातें, वो चुपके चुपके ख़त पढ़ना,वो खामोश निगाहें, मानो जैसे कोई हसीना आपसे रूबरू होकर गुफ्तगू कर रही हो ,, वो पल किसी फ़िल्म के सीन जैसे लगते हैं, मगर असलियत में जिए जाते थे।
कभी-कभी कोई गुलाब भेज देना, किसी की किताब में एक पर्ची डाल देना, किसी मोड़ पर खड़े होकर बस उसे जाते देखना — यही था उस दौर का इज़हार। कोई दिखावा नहीं, कोई सोशल मीडिया पोस्ट नहीं, मगर प्यार करने का एक सच्चा जज़्बा ज़रूर था।

उस वक्त के आशिक़ कम बोलते थे, ज़्यादा महसूस कराते थे। किसी की ख़ामोशी में भी मुहब्बत की आवाज़ होती थी। शायद इसलिए मुझे उस दौर का इश्क़ अमर लगता है — क्योंकि उसमें “फैशन” नहीं, “फिक्र” थी।

4.नए दौर की मुहब्बत का अंदाज़

आज की मुहब्बत तेज़ है, स्मार्ट है, और डिजिटल भी है। अब लोग अपनी तस्वीरों में प्यार तलाशते हैं, और ‘लाइक’ में अपनापन ढूंढते हैं। “Text me when you reach home” अब भी वही जुमला है, मगर अब उसमें पहले जैसी ना तो बेचैनी है ना वो फ़िक्र दिखती है।
अब प्यार में दूरी नहीं होती, मगर फिर भी दिलों में फ़ासले बहुत हैं। अब लोग हर पल साथ हैं — ऑनलाइन, मगर रूह से दूर हैं।
मुहब्बत अब अपडेट्स में ढल चुकी है — “कपल गोल्स”, “रिलेशनशिप स्टेटस”, “एनीवर्सरी पोस्ट”… सब कुछ शेयर होता है, बस दिल के जज़्बात अक्सर छिप जाते हैं।
फिर भी, यह दौर बुरा नहीं है। हर दौर की अपनी मिठास है। आज की मुहब्बत में खुलापन है, इज़हार की हिम्मत है, और बराबरी का अहसास भी। अब लड़की पहल कर सकती है, अब लड़का भी अपनी कमजोरी दिखा सकता है। यह मुहब्बत शायद “ क्लासिक न हो मगर, “रियल” ज़रूर है।

5.मुहब्बत की असल रूह — जो हर दौर में ज़िंदा है

दौर चाहे कोई भी रहा हो, मुहब्बत की कभी बुनियाद नहीं बदलती। उसकी ज़मीन हमेशा जज़्बात की होती है। जब किसी के चेहरे को देखकर दिल मुस्कुरा दे, जब किसी की बात से सुबह खुशनुमा लगे, जब किसी की याद में रात नींद ओर दिन का करार छिन जाए —ओर हज़ारों मील दूर बैठे दर्द का एहसास हो जाए, आखिर यही तो मुहब्बत है।
फ़र्क सिर्फ़ इतना सा है पुराने दौर में ये एहसास खतों में था, अब मोबाइल फोन की चैट में है। मगर एहसास वही है। मगर फर्क सिर्फ़ ज़रिए का है।
मुहब्बत कभी टेक्नोलॉजी पर नहीं टिकी, वो हमेशा दिल की जमीन पर पनपी है और वही पर ज़िंदा भी रहती है। इसीलिए जो सच्ची मुहब्बत करते हैं, वो न तो पुराने हैं न वो नए — वो बस “हमेशा” हैं।

6.मुहब्बत की तकमील — जो हर किसी को नसीब नहीं होती

हर इंसान की मुहब्बत मुकम्मल नहीं होती। कुछ लोग मिलकर भी अधूरे रह जाते हैं, और कुछ बिछड़कर भी अमर हो जाते हैं।
वो जो पुराने वक़्त में था — “तेरा नाम लूँ लबों पर, ये भी गुनाह हो गया”, और आज का — “तेरे लास्ट मैसेज के बाद सब ख़ामोश हो गया” — दोनों में एक ही दर्द है एक ही अहसास है, बस ज़माने का अंदाज़ जुदा है।

सच्ची मुहब्बत को न वक़्त बाँध सकता है, न दूरी, न हालात,न धर्म की बेड़ियां। वो वही रहती है — किसी दिल के कोने में चुपचाप धड़कती हुई।

7.मुहब्बत — एक जज़्बा, जो इंसान को इंसान बनाता है

मैंने अब तलक यह महसूस किया है अगर इंसानियत की जड़ कहीं है, तो वो मुहब्बत में ही है। यही एहसास है जो हमें दूसरों के लिए जीना सिखाता है। चाहे वो माँ का अपने बच्चे के लिए प्यार हो,या बीवी से किया गया वादा हो या दोस्तों के बीच का अपनापन, या दो दिलों की खामोश मुहब्बत — हर रूप में यह जज़्बा इंसान को बेहतर बनाता है।
मुहब्बत किसी किताब, किसी मज़हब या क़ानून की मोहताज नहीं है। यह तो वही पुराना चिराग़ है, जो हर दिल में किसी न किसी कोने में जलता रहता है।

8.नतीजा — मुहब्बत न पुरानी होती है, न नई

आखिर में मैं यही कहना चाहूंगा दौर बदले हैं, तरीक़े बदले हैं, मगर मुहब्बत की धड़कन आज भी वही है जो सदियों पहले थी। फ़र्क इतना सा है कि अब वो अल्फ़ाज़ में कम, और डिजिटल दायरों में ज़्यादा छिप गई है।
मगर जब कोई किसी को सच्चे दिल से चाहता है — तो फिर न ज़माना मायने रखता है, न टेक्नोलॉजी, न हालात,न मज़हब।

मुहब्बत वही है — जो हमें मुस्कुराना सिखाती है, जो कभी हमें रुला देती है, जो हमें अपने से बढ़कर किसी और की फिक्र करना सिखाती है। दो जिस्म एक जान सी लगती है मुहब्बत

आखिर में…
मुहब्बत कोई तारीख़ नहीं है, जो बीत जाए। न कोई मोबाइल फ़ोन की एप्लिकेशन, जो अपडेट हो जाए। यह तो वो दिल के अहसास है जो हर पीढ़ी में, हर दिल में, हर सांस में ज़िंदा रहते हैं।
चाहे वो पुरानी ख़ुशबू वाले खतों में छिपी हो, या नई चैट्स की रौशनी में झिलमिलाती हो—ये मुहब्बत आज भी वही है, जो कल थी — बस ज़माना थोड़ा बदल गया है। बदले नहीं है तो बस मुहब्बत करने वाले।

लेखक- साजिद अली सतरंगी, मेरठ उत्तर प्रदेश

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