भारत के पुराने इतिहास के पन्नों में कुछ ऐसे नाम हैं जो ताकत या राजनीति के लिए नहीं, बल्कि दया, हिम्मत और सच्चे विश्वास के लिए जाने जाते हैं। ऐसा ही एक नाम है एमी कार्माइकल का। वे आयरलैंड की रहने वाली एक मिशनरी थीं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन भारत के तमिलनाडु राज्य में ज़रूरतमंद और लावारिस बच्चों की सेवा में लगा दिया।
एमी का जन्म 1867 में उत्तरी आयरलैंड में हुआ था। वे आराम से जिंदगी जी सकती थीं, लेकिन अपने गहरे धार्मिक विश्वास से प्रेरित होकर वे 1895 में भारत आईं—और फिर कभी वापस नहीं गईं। यहां उन्होंने देखा कि छोटी-छोटी बच्चियों को मंदिरों में देवदासी के रूप में चढ़ाया जाता है, और फिर उनके साथ धार्मिक परंपराओं के नाम पर बुरा व्यवहार होता है। बहुत से लोग इसे देखकर चुप रहते थे, लेकिन एमी ने चुप रहने की बजाय काम करना शुरू किया।

1901 में उन्होंने डोनावुर फेलोशिप नाम से एक घर शुरू किया, जहां वे इन बच्चियों को सुरक्षा, प्यार और सम्मान भरा जीवन देने लगीं। यह सिर्फ एक आश्रय स्थल नहीं था, बल्कि एक ऐसा परिवार बन गया जहां बच्चों को प्यार, शिक्षा और बेहतर भविष्य मिला। वे बच्चों के लिए “अम्मा” यानी माँ बन गईं, और बच्चों ने उन्हें इसी नाम से पुकारा।
एमी कार्माइकल दूसरी मिशनरियों से अलग थीं। उन्होंने भारतीय संस्कृति का पूरा सम्मान किया। वे भारतीय कपड़े पहनती थीं, तमिल भाषा बोलती थीं और कभी भी किसी पर अपनी संस्कृति या धर्म नहीं थोपीं। उनका मकसद धर्म बदलवाना नहीं था, बल्कि बच्चों को उनकी खोई हुई इंसानियत वापस देना था। उस समय जब ज़्यादातर विदेशी लोग भारत को नीचा समझते थे, एमी ने प्यार और समानता से सबका दिल जीत लिया।
बुढ़ापे में जब वे बीमार होकर बिस्तर पर पड़ गईं, तब भी उन्होंने लिखना जारी रखा। उन्होंने कुल 35 किताबें लिखीं, जो आज भी लोगों को प्रेरणा देती हैं। उन्होंने कभी अपने देश वापस जाने की इच्छा नहीं जताई। यह उनके समर्पण का सबसे बड़ा प्रमाण है।

आज भले ही इतिहास की किताबों में बड़े-बड़े राजाओं और नेताओं का नाम लिखा हो, लेकिन एमी कार्माइकल की पहचान उन हज़ारों बच्चों के जीवन में ज़िंदा है, जिन्हें उन्होंने एक माँ की तरह पाला। उन्होंने अपने लिए किसी मूर्ति या स्मारक की मांग नहीं की। उनकी कब्र पर बस एक छोटा सा तमिल शब्द लिखा है: “अम्मा”।
एमी कार्माइकल को याद करना एक ऐसी महिला को याद करना है, जो भूले-बिसरे बच्चों की माँ बनीं, जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के सेवा की और हमें यह सिखाया कि सच्ची सेवा के लिए दिखावे की नहीं, दिल की ज़रूरत होती है।