
ब्रिटिश काल का 1936 का रिकार्ड है कमेटी के पास
कुतुब ए भिलाई हजरत सैय्यद बाबा रहमतुल्लाह अलैहि की दरगाह कितनी पुरानी है, इस बारे में ज्यादातर लोग अंजान थे। लेकिन वर्तमान में मस्जिद-मजार से जुड़े लोगों ने यहां से जुड़ा ब्रिटिशकालीन राजस्व रिकार्ड निकाला है। जिसके मुताबिक साल 1936-37 में वर्तमान जगह को ‘सैयद बाबा का कबर स्थान’ के तौर पर दर्ज किया गया है। इसकी पुनरावृत्ति बाद के रिकार्ड में भी है।
छोटी सी कब्र थी, बाद में मजार बनाई गई
भिलाई स्टील प्लांट के सेवानिवृत्त डिप्टी मैनेजर हाजी मुनीर अहमद शाह बताते हैं जनवरी 1959 में वह अपने बड़े भाई के साथ भिलाई आए थे। तब 5 वीं पढ़ते थे। यहां भिलाई स्टेशन में बिजली नहीं थी। उन दिनों भव्य मजार का रूप नहीं था। एक बेल का पेड़ था और उसकी छांव तले कब्र बनी हुई थी। यहां पेड़ से गिरने वाले फल को लोग प्रसाद-तबर्रूक समझ कर ले जाते थे। लोगों का भरोसा था कि इस फल को खाने से मन्नत पूरी होती है। तब हम लोग सुनते थे कि कभी एक बुजुर्ग वहां बैठा करते थे। हालांकि कब उनकी वफात हुई, यह जानकारी नहीं हो पाई। हम लोगों ने वहां कब्र ही देखी है। बेल का पेड़ बाद में काट दिया गया था। इस मजार में शुरू से ही सभी धर्म के लोगों की आस्था रही है। आज भी यह परंपरा बरकरार है।
भूपेश की दादी ने देखा था बाबा को
रेलवे से रिटायर हाजी हमीद अशरफी बताते हैं-बाबा यहां कब आए इस बारे में किसी को नहीं मालूम। वह खुद 1960 में भिलाई पहुंचे थे। तब पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बड़े पिताजी और यहां के प्रमुख राजनीतिक-सामाजिक व्यक्तित्व श्यामाचरण बघेल तथा पचकौड़ दाऊ के पास हम लोग बैठा करते थे। तब खुद श्यामचरण बघेल बताते थे कि उन्होंने बचपन से यहां खुले में बनी कब्र देखी है और बाबा को नहीं देखा। हाजी हामिद के मुताबिक तब दाऊ श्यामाचरण बघेल की बुजुर्ग मां हम लोगों को बताया करती थी कि उन्होंने बाबा को देखा था। वह बताती थीं कि एक बुजुर्ग एक रोज घोड़े पर आए और इसी जगह बैठ गए। उसके बाद लोग उनके पास जाते थे। हालांकि उन्हें भी सन साल की जानकारी नहीं थी लेकिन उनकी बातों से आभास होता था कि शायद 1920 से 30 के बीच बाबा यहां आए होंगे।
बाबा ने कहा था-एक रोज सोना उगलेगी जमीन
हाजी हामिद खान अशरफी बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की दादी और दादा के दौर के लोगों ने सैयद बाबा को देखा है। हाजी अशरफी के मुताबिक बघेल की दादी उन्हें बताती थी कि बाबा ज्यादा किसी से बात नहीं करते थे। लोग उनके पास मुरादें लेकर जाते थे। इनमें ज्यादातर हिंदू ही होते थे क्योंकि तब यहां एक मात्र तेली परिवार के अलावा कोई मुस्लिम परिवार नहीं था। स्व.श्यामचरण बघेल की मां से सुनी हुई बातों के आधार पर हाजी हामिद बताते हैं-बाबा यहां अक्सर पत्थर इकट्ठा कर जमा करते थे। उनसे कोई पूछता तो आज जहां भिलाई स्टील प्लांट है, उस तरफ इशारा कर बोलते थे-देखना एक दिन यह जमीन सोना उगलेगी और यही हुआ भी।
1965 के बाद होते गए तामीरी काम
हाजी हामिद खान अशरफी ने बताया कि सन 1965 के बाद उर्स का नियमित आयोजन होने लगा। तब मजार के चारों तरफ चटाई का घेरा था। बाद के दिनों में यहां मजार, मस्जिद और मीनार का काम जन सहयोग से होता गया औऱ् मजार-मस्जिद आज इस स्वरूप में है। हाजी हामिद बताते हैं कि चूंकि बाबा की वफात कब हुई, यह किसी को नहीं मालूम इसलिए यहां उर्स के लिए चांद की कोई तारीख नहीं है। कमेटी ने उर्स के लिए अप्रैल-मई का महीना लोगों की सुविधा को देखते हुए तय किया है।
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है उर्स कमेटी, 10 साल अध्यक्ष रहे हैं डॉ. चंद्राकर

भिलाई-तीन स्थित सैयद बाबा का उर्स हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। यहां के प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ. जीएस चंद्राकर उर्स कमेटी में 1985 से 1995 तक अध्यक्ष रहे हैं। डॉ. चंद्राकर बताते हैं कि अंचल में दोनों समुदाय का भाईचारा बहुत मजबूत है और जब वह अध्यक्ष थे, तब भी आज की तरह सभी के सहयोग से उर्स के आयोजन होते रहे। कई नामी कव्वालों को बुलाया गया। डॉ. चंद्राकर बताते हैं यहां दूर-दूर से हर समुदाय के लोग आते हैं। वह खुद हर उर्स में अपनी तरफ से चादर चढ़ाने सपरिवार जाते हैं। डॉ. चंद्राकर बताते हैं कि बचपन में वह जनता स्कूल में पढ़े हैं और स्कूल की छुट्टी के दौरान सैयद बाबा की कब्र के आसपास सब बच्चे खेलते थे। बाद में जब 1980 में वह जीविकोपार्जन के लिहाज से यहां पहुंचे तब रायपुर से सिकंदर अली यहां उर्स कमेटी में अध्यक्ष थे और मुझे सचिव बनाया गया। बाद में सिकंदर अली रायपुर चले गए तो 1985 में मुझे लोगों ने अध्यक्ष बना दिया और यह जवाबदारी मैनें 10 साल तक निभाई।
आज से शुरू होगा उर्स, शाही संदल निकलेगा, कव्वाली और लंगर भी
कुतुब ए भिलाई हजरत सैय्यद बाबा रहमतुल्लाह अलैहि का चार दिवसीय 72 वां उर्स मुबारक भाईचारा महोत्सव 22 मई से शुरू हो रहा है। उर्स कमेटी के अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं। कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष मो. नजरूल इस्लाम ने बताया कि 22 मई गुरुवार की सुबह मजार पाक का गुस्ल होगा। इसके बाद नमाज ए फजिर, बाद गुस्ल परचम कुशाई, कुरआन खानी व फातेहा खानी होगी। शाही संदल शाम के वक्त बाद नमाज ए मगरिब आस्तान ए आलिया (मजार शरीफ) से निकलकर शहर का गश्त करता हुआ आस्तान ए आलिया पहुंचेगा। जहां चादर पोशी की रस्म अदा की जायेगी। रात में एक अजीमुश्शान जलसा रखा गया है, जिसमें हजरत अल्लामा मौलाना नोमान अख्तर फैकुल जमाली नवादा (बिहार) की तकरीर होगी। वहीं मौलाना मुफ्ती जलालुदीन रजवी भिलाई, तौकीर अशरफी रायपुर, अख्तर काशिफ गिरिडीह (झारखंड), नसीम रजा भिलाई-तीन सहित मस्जिद व मदारिस के तमाम उलेमा ए कराम रौनक स्टेज रहेंगे। 23 मई शुक्रवार रात 9 बजे से जी.ई. रोड, दरगाह के पास, मिनी स्टेडियम में कव्वाली का बेमिसाल मुकाबला रखा गया है। जिसमें कपासन शरीफ, राजस्थान के कव्वाल शब्बीर सदाकत साबरी और दिल्ली के कव्वाल रईस अनीस साबरी अपने कलाम पेश करेंगे। 24 मई शनिवार को रात 9 बजे से होने वाली कव्वाली में दिल्ली के रईस-अनीस साबरी रौनके स्टेज होंगे। 25 मई इतवार की सुबह बाद नमाज ए फजिर रंग की महफिल व कुल की फातेहा होगी। इसके बाद शाम 7 बजे से आम लंगर रखा गया है।